अंग्रेजी कैलेन्डर के अनुसार दशहरा की तारीख हर वर्ष बदलती रहती है। लेकिन हम इसकी परवाह नहीं करते। अंग्रेजी तिथि कुछ भी हो, हमने तय किया है कि हम प्रत्येक विजयदशमी को ही अपनी वर्षगांठ मनाएंगे क्योंकि गत वर्ष इसी दिन मिशन तिरहुतीपुर की औपचारिक शुरुआत हुई थी। जैसे माता-पिता और सगे संबंधियों के लिए बच्चे की पहली वर्षगांठ को लेकर विशेष उत्साह होता है, उसी तरह हमारे मन में भी मिशन की पहली वर्षगांठ को लेकर खूब उत्साह था।
किसी के उत्साह की परीक्षा लेनी हो तो हिंदी साहित्य में एक मुहावरा इस्तेमाल किया जाता है जिसे कहते हैं अग्नि परीक्षा। लेकिन मिशन तिरहुतीपुर में यह मुहावरा बदल जाता है। यहां हमारे उत्साह की जांच के लिए अग्नि परीक्षा नहीं बल्कि जल परीक्षा ली जाती है। इस परीक्षा को लेने का काम कोई और नहीं बल्कि तिरहुतीपुर और मेरे अपने गांव सुंदरपुर कैथौली के बीच बहने वाली बेसो मैया करती हैं। पिछली बार हमने यह परीक्षा टूटे पुल पर बिजली के खंभे बिछाकर पास की थी, लेकिन इस बार प्रश्न पत्र बदल गया था। यही नहीं, प्रश्नपत्र कठिन भी हो गया था।
पिछले वर्ष हमने जिस पुल पर बिजली के खंभे बिछाए थे, उसे इसी वर्ष गर्मियों में सरकार ने समूल उखाड़कर हटा दिया और उसकी जगह एक नए पुल का निर्माण कार्य शुरू कर दिया। जब बरसात आई तो पुल अधूरा था। पुराना मिट चुका था और नया बन नहीं पाया था। इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज हमारे गांव भी इसी स्थिति में हैं। अतीत की व्यवस्थाएं लगभग काल बाह्य हो गई हैं लेकिन उनकी जगह कोई संतोषजनक युगानुकूल व्यवस्था अभी भी साकार नहीं हो सकी है। ऐसे में हमारे गांव एक तदर्थ व्यवस्था में जीने के लिए विवश हैं और उनका वर्तमान चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
वर्तमान की चुनौतियों से निपटने में अतीत के सुखद पल और भविष्य के सुनहरे सपने मददगार होते हैं लेकिन तभी, जब हम वर्तमान में अपनी उद्यमशीलता बनाए रखें। अगर बेसो नदी के पुल की बात की जाए तो यहां गांव वालों ने अतीत और भविष्य को कुछ दिनों के लिए भुलाकर वर्तमान की चिंता की और बरसात शुरू होते ही एक अस्थाई पुल का निर्माण किया। बांस और युक्लिप्टस की लकड़ी से बना यह पुल सामान्य जल प्रवाह के लिए तो ठीक था, लेकिन बाढ़ की स्थिति में इसका टिकना असंभव था।

जैसी आशंका थी वैसा ही हुआ। सितंबर में बेसो मैया ने अपना विकराल रूप दिखाया और इस पुल को बहा ले गईं। यही नहीं उन्होंने तिरहुतीपुर को हमारे गांव से जोड़ने वाले एक दूसरे सड़क मार्ग को भी जलमग्न कर दिया। हमें उम्मीद थी कि अक्टूबर के पहले सप्ताह तक बाढ़ का असर कम हो जाएगा और हम 12 किमी घूमकर कार से तिरहुतीपुर पहुंच जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तिरहुतीपुर जाने वाली सड़क दशहरा तक जलमग्न ही रही।
गोविन्दजी अच्छे तैराक रहे हैं। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने कई बार गंगाजी को तैरकर पार किया है। लेकिन उम्र के 78वें वर्ष में उन्हें तैर कर बेसो पार करने के लिए उकसाना उचित नहीं था। जब कोई उपाय नहीं सूझा तो मैंने थक-हारकर गोविन्दजी से ही इस मुद्दे पर चर्चा की।
मैंने उन्हें बताया कि अतीत में जब बेसो नदी पर कोई पुल नहीं था, तब लोग नदी पार करने के लिए लोहे के बड़े-बड़े कड़ाहों का इस्तेमाल किया करते थे। बाढ़ के दौरान ये कड़ाह जहां नाव का काम करते थे, वहीं गन्ने की सीजन में इनका उपयोग गुड़ पकाने के लिए भी होता था। गोविन्दजी ने मेरी बात ध्यान से सुनी और कहा कि उन्हें पुराने तरीके से नदी पार करने में कोई आपत्ति नहीं है।
कड़ाह में बैठकर नदी पार करने के लिए गोविन्दजी तैयार हो गए थे, लेकिन इस विचार से मेरे अन्य साथी आशंकित थे। सबकी आशंका को दूर करने के लिए मैंने कुछ लोगों को कड़ाह में बैठाकर नदी पार कराने का ट्रायल करवाया। जब ट्रायल सफल रहा तो सभी प्रकार की आशंका समाप्त हो गई। किसी अनहोनी से निपटने के लिए हमने कड़ाह के साथ एक बड़े ट्यूब का भी इंतजाम कर दिया था। दशहरा के दिन तक हमारी तैयारी पूरी हो चुकी थी। हम अपनी जल-परीक्षा को लेकर एकदम सहज थे।
15 अक्टूबर को सायं 3 बजे हमारी बहु प्रतीक्षित जल परीक्षा शुरू हुई। नदी के उस पार तिरहुतीपुर के लोग अगवानी के लिए कई घंटे पहले ही आ गए थे। कड़ाह रूपी नाव को एस्कार्ट करने के लिए गांव के ही पांच तैराक पूरी तरह तैयार थे। सबसे पहले प्रसाद के लड्डू उस पार भेजे गए। उसके बाद एक-एक करके बालक-वृद्ध-जवान, महिला-पुरुष, मोटे-पतले सभी लोग नदी पार करने लगे। कुछ मिनटों की यह यात्रा इतनी रोमांचक रही कि शायद ही कोई इसे भूल पाए।
गोविन्दजी को सबसे पहले नदी पार करवाया गया ताकि उन्हें तिरहुतीपुर के लोगों से बातचीत करने का अधिक से अधिक समय मिल जाए। उनके पीछे जब अन्य लोग नदी पार करके मिशन की मड़ई पहुंचे, तब वहां हवन का पूर्व निर्धारित कार्यक्रम शुरू हुआ। हरे-भरे खेतों के बीच गोविन्दजी को कच्ची जमीन पर बैठ कर हवन करते देखना अपने आप में एक सुखद अनुभव था।

हवन के दौरान पंडितजी जब स्वाहा बोलते तो उनके साथ गोविन्दजी ही नहीं बल्कि गांव के सैकड़ों बच्चे भी गगनभेदी स्वर में स्वाहा बोल रहे थे। ऐसा करते समय उनका उत्साह देखने लायक था। हवन के बाद अनौपचारिक चर्चा का एक और सत्र चला। रात में नदी पार करने में दिक्कत हो सकती थी, इसलिए सूर्यास्त होते-होते गोविन्दजी को सुंदरपुर कैथौली वापस लौटना पड़ा।

राष्ट्रीय अभियान की तैयारीः
16 और 17 अक्टूबर को किसी औपचारिक कार्यक्रम का दबाव नहीं था। इसलिए मुझे गोविन्दजी से बात करने का पर्याप्त समय मिला। हमारी बातचीत मुख्यतः इस बात पर केन्द्रित रही कि कैसे मिशन तिरहुतीपुुर को देश के सभी गांवों के लिए प्रासंगिक और उपयोगी बनाया जाए।
कई दौर की बातचीत के बाद यह तय हुआ कि तिरहुतीपुर को आधार बनाकर राष्ट्रीय स्तर पर एक अभियान चलाया जाएगा जिसका नाम होगा ग्रामयुग। इसके अंतर्गत सबसे पहले यह सुनिश्चित किया जाएगा कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर गांव के बारे में सोचना शुरू करें। इसके बाद गांव के बारे में सामूहिक चर्चा और बहस के लिए जमीन तैयार की जाएगी। अंतिम चरण में अधिकाधिक लोगों (विशेष रूप से शहरों में रहने वालों को) जमीनी स्तर पर गांव से जुड़कर कुछ करने के लिए तैयार किया जाएगा।
ग्रामयुग अभियान कुछ गिने-चुने लोगों से बड़ा-बड़ा काम करवाने की बजाए बड़ी संख्या में लोगों को छोटा-छोटा काम करने के लिए प्रोत्साहित करने की नीति पर चलेगा। दूसरे शब्दों में कहें तो ग्रामयुग अभियान एक ऐसा खेल होगा जिसमें लोगों को दर्शक दीर्घा में बैठकर मैच देखने की बजाए स्टेडियम में आकर खेलने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा।
दशहरा का एक नाम सीमोल्लंघन भी है। यह दिन अपनी ज्ञात क्षमता के पार जाकर कुछ बड़ा सोचने का है। इस परंपरा को निभाते हुए हमने इस विजयदशमी के दिन ‘ग्रामयुग’ का सपना देखा है। अभी यह सपना श्री के.एन. गोविन्दाचार्य और मिशन तिरहुतीपुर के कुछ कार्यकर्ताओं तक सीमित है। हमारी इच्छा है कि यह सपना आपका भी सपना बन जाए। जब हम मिलकर यह सपना देखेंगे तो उसे साकार करना स्वयं भगवान राम की जिम्मेदारी होगी।
शृंखला की अंतिम डायरीः
आने वाले कुछ महीने हमें मिशन तिरहुतीपुर का काम करते हुए ग्रामयुग अभियान की व्यापक तैयारी करनी है। इसे ध्यान में रखते हुए मैं मिशन तिरहुतीपुर डायरी की इस औपचारिक शृंखला को फिलहाल स्थगित कर रहा हूं। ईश्वर की इच्छा हुई तो शीघ्र ही नई शृंखला के साथ आप सबके बीच मैं फिर से उपस्थित होऊंगा। तब तक के लिए नमस्कार।
विमल कुमार सिंह
संयोजक, मिशन तिरहुतीपुर